प्रताप ट्रैक्टर: एटीएल फैक्ट्री का अनसुलझा औद्योगिक रहस्य
हमारा यह वृत्तचित्र इतिहास उस स्थान की पड़ताल करता है जिसे कभी प्रतापगढ़ का औद्योगिक गौरव माना जाता था—ऑटो ट्रैक्टर्स लिमिटेड (Auto Tractors Limited - ATL)। यह कहानी महज एक फैक्ट्री के बंद होने की नहीं है, बल्कि एक औद्योगिक आशा के पतन की है, जिसने एक विशाल वीरान परिसर को जन्म दिया। यह परिसर, कानून के शिथिल होने के कारण, जल्द ही संगठित अपराध और रहस्यमय लोककथाओं का प्रजनन स्थल बन गया। प्रस्तुत है वह विस्तृत दस्तावेज़, जिसे हॉलीवुड थ्रिलर स्क्रिप्ट की गति और गहराई के साथ तैयार किया गया है।
38 हेक्टेयर का वीरान इलाका
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में, लखनऊ-वाराणसी राजमार्ग के किनारे, सदर क्षेत्र के कटरामेदनीगंज में स्थित एक विशाल परिसर सन्नाटे में डूबा हुआ है । यह ऑटो ट्रैक्टर्स लिमिटेड (एटीएल) का खंडहर है, जो 38.047 हेक्टेयर (लगभग 200 बीघा) में फैला हुआ है । आज यह भवन अपने टूटे हुए शीशों और जंग लगी संरचनाओं के साथ खड़ा है, एक 'खंडहर हो चुका भवन' , जो 1998 से पूरी तरह वीरान पड़ा है । इस विशाल संपत्ति का मूल्यांकन ₹600 करोड़ तय किया गया था, लेकिन दो दशकों से अधिक समय तक यह संपत्ति न्यायिक गतिरोध के कारण निष्क्रिय रही ।
यह वीरान भूभाग केवल ईंट और मोर्टार का ढेर नहीं है; यह एक ऐसा मौन क्षेत्र है जहाँ अतीत की गौरव गाथाएँ दबी हुई हैं और वर्तमान में अवैध गतिविधियों का साया मंडराता है।
प्रतापगढ़ का गौरव
एटीएल की स्थापना 1981 में स्थानीय लोगों को रोजगार प्रदान करने के उद्देश्य से तत्कालीन विदेश मंत्री राजा दिनेश सिंह द्वारा की गई थी । यह फैक्ट्री जल्द ही प्रतापगढ़ की शान बन गई, जहाँ प्रसिद्ध 'प्रताप ट्रैक्टर' का निर्माण होता था। प्रताप ट्रैक्टर अपनी शक्ति और कम डीजल खपत के लिए किसानों के बीच बेहद लोकप्रिय था, और उसकी मांग अंतरराष्ट्रीय स्तर तक थी । अपने स्वर्ण युग में, एटीएल ने लगभग 1200 से 1350 लोगों को सीधा रोजगार दिया था, जिससे सैकड़ों परिवारों की आजीविका जुड़ी थी । यह इकाई स्थानीय औद्योगिक पहचान का प्रतीक बन गई थी, एक ऐसी विरासत जो यह दर्शाती थी कि कैसे ग्रामीण भारत भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकता है।
केंद्रीय प्रश्न: खंडहर क्यों?
इस कहानी का केंद्रीय रहस्य यह है कि एक ₹600 करोड़ मूल्य की संपत्ति, जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त उत्पाद का निर्माण करती थी, मात्र ₹67.92 करोड़ की देनदारी के कारण दो दशक से अधिक समय तक क्यों वीरान पड़ी रही । यह पतन अचानक नहीं था; यह घाटे, राजनीतिक निर्णयों, निजीकरण के विवादों और अंततः न्याय की लंबी, पीड़ादायक अनुपस्थिति का परिणाम था। यह प्रशासनिक गतिरोध, जिसने 24 साल तक इस संपत्ति को निष्क्रिय रखा, ने स्थानीय अर्थव्यवस्था में एक गहरा शून्य पैदा किया। यह शून्य एक 'आवरण' (A perfect hiding place) बन गया, जहाँ आर्थिक विश्वासघात और संगठित अपराध ने अपनी जड़ें जमा लीं। यह खंडहर अब उम्मीद का नहीं, बल्कि काली कमाई के साम्राज्य का एक स्मारक है।
औद्योगिक संकट: घाटे की काली छाया
1980 के दशक के अंत तक एटीएल वित्तीय संकटों से घिरने लगी। वह औद्योगिक उत्साह जिसने 1981 में जन्म लिया था, अब घाटे के भारी दबाव में था। 20 नवंबर 1990 को, वित्तीय संकट के कारण एटीएल को औपचारिक रूप से एक 'सिक यूनिट' घोषित कर बंद कर दिया गया । इस निर्णय ने तत्काल 1350 कर्मचारियों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला, जिन्हें अचानक छंटनी (Retrenchment) का सामना करना पड़ा ।
सिपानी का अधिग्रहण: निजी हाथों में विनाश
संकट के समाधान के रूप में, 21 फरवरी 1991 को, तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने फैक्ट्री को निजी हाथों में सौंपने का एक त्वरित राजनीतिक निर्णय लिया । बंगलौर के उद्योगपति रमेश सिपानी ने कंपनी का संचालन संभाला । यह निजीकरण श्रमिकों के लिए विश्वासघात का पहला कार्य था। सिपानी के संचालन में, फैक्ट्री का मूल गौरव—प्रताप ट्रैक्टर का निर्माण—तुरंत बंद कर दिया गया। हालांकि, डीजल इंजन का निर्माण कर उसे दूसरे प्रांतों में भेजा जाता रहा ।
विश्लेषण से पता चलता है कि निजीकरण का यह निर्णय, जो घाटे के कारण लिया गया था, औद्योगिक इकाई के मूल उद्देश्य को समाप्त करने वाला था। श्रमिकों ने इस कदम के विरोध में कोर्ट का रुख किया, जिससे कानूनी विवादों की नींव पड़ी । सिपानी एक ऐसे खलनायक (Antagonist) के रूप में उभरे, जिसने औद्योगिक इकाई का अधिग्रहण किया, मुख्य उत्पाद को नष्ट किया, और अंततः फैक्ट्री को कर्ज के बोझ तले छोड़कर भाग गया।
अंतिम साँस: औद्योगिक मृत्यु (1998)
सिपानी के अधीन भी कंपनी कर्ज के बोझ से नहीं उबर पाई। अंततः, 15 मई 1998 को, एटीएल फैक्ट्री पूरी तरह बंद हो गई, और इस तरह प्रतापगढ़ की यह औद्योगिक इकाई औद्योगिक इतिहास बन गई । 1350 से अधिक कर्मचारी पूरी तरह बेरोजगार हो गए। हालांकि, कुछ कर्मचारियों को यूपी सरकार द्वारा अन्य विभागों (जैसे ग्रामीण इंजीनियरिंग विभाग में जूनियर क्लर्क) में समायोजित किया गया , लेकिन अधिकांश को अपने बकाए के भुगतान और न्याय के लिए एक लंबी, दशक-व्यापी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी।
कानूनी मोर्चा (1999-2022)
एटीएल के बंद होने के बाद, श्रमिकों और कर्ज देने वालों ने वर्ष 1999 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपने बकाए के भुगतान के लिए वाद दायर किया । यह एक जटिल न्यायिक तंत्र की शुरुआत थी। कोर्ट ने मामले के निस्तारण के लिए एक परिमापक (Liquidator) नियुक्त किया । यह कानूनी लड़ाई 24 साल तक खिंची, जिसके दौरान कर्मचारियों का बकाया, बैंकों की देनदारी और इंश्योरेंस कंपनी का बकाया सहित 29 मामले हाईकोर्ट में विचाराधीन रहे ।
इस लंबी लड़ाई के कारण, एटीएल परिसर एक विशाल, निष्क्रिय संपत्ति बन गया। यह कानूनी पक्षाघात (Administrative Paralysis) का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहाँ न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता ने ₹600 करोड़ की संपत्ति को दशकों तक बर्बाद होने दिया।
देनदारी का पहाड़ और ₹600 करोड़ का दाँव
विवाद का चरमोत्कर्ष तब आया जब कोर्ट ने देनदारी चुकाने के लिए एटीएल की करीब 200 बीघा जमीन बेचने का आदेश दिया। जिलाधिकारी द्वारा गठित समिति ने जमीन का मूल्य ₹600 करोड़ तय किया ।
यह एक महत्वपूर्ण विरोधाभास को उजागर करता है: देनदारी (जो बाद में ₹67.92 करोड़ निर्धारित हुई) जमीन के वास्तविक मूल्य (₹600 करोड़) के मुकाबले बहुत कम थी। यह दर्शाता है कि विवाद का मूल कारण आर्थिक नहीं, बल्कि कानूनी और प्रशासनिक गतिरोध था, जिसने ₹530 करोड़ से अधिक की शुद्ध संपत्ति को निष्क्रिय रखा।
सांसद संगमलाल गुप्ता के हस्तक्षेप और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सहमति के बाद, सरकार ने इस जमीन को बेचने के बजाय देनदारी चुकाने का निर्णय लिया । 30 जून 2022 को, हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश औद्योगिक विकास प्राधिकरण (UPSIDA) को कुल देनदारी ₹67.92 करोड़ परिमापक के पास जमा कराने के निर्देश दिए । इस कदम से जमीन सरकार के हाथ में आ गई, जिससे इस पर नए सिरे से उद्योग-धंधे स्थापित होने की उम्मीद जगी ।
न्याय, बहुत देर से (Justice Delayed is Justice Denied)
24 साल की पीड़ादायक कानूनी लड़ाई का अंत 30 जून 2022 को हुआ, जब हाईकोर्ट ने 622 कर्मचारियों को उनके बकाए के रूप में ₹21,73,93,377.57 का भुगतान करने का आदेश दिया । ऑटो ट्रैक्टर्स लिमिटेड कर्मचारी संघ के अनुसार, प्रति कर्मचारी हिस्से में लगभग ₹35 लाख का बकाया भुगतान आया।
यह न्याय की जीत कम और मानवीय त्रासदी ज्यादा थी। कई कर्मचारी, जो 1999 में कानूनी लड़ाई शुरू होने पर जीवित थे, अब इस दुनिया में नहीं थे। उनके आश्रितों को यह भुगतान मिला । इसके अलावा, कर्मचारियों को अपनी पिछली सेवा (1980 से 1990 तक) को भी पेंशनरी लाभों और वेतन सुरक्षा (Pay Protection) के लिए शामिल कराने हेतु कोर्ट में अलग से संघर्ष करना पड़ा।
निम्नलिखित सारणी एटीएल के पतन की कालानुक्रमिक रूपरेखा और वित्तीय दाँव प्रस्तुत करती है, जो इस लंबी त्रासदी के पैमाने को दर्शाती है:
1981 स्थापना- 'प्रताप ट्रैक्टर' का गौरव; 1350 लोगों को रोजगार।
20 नवंबर 1990 प्रथम बंद घाटे के कारण 'सिक यूनिट' घोषित; श्रमिकों का विस्थापन शुरू।
21 फरवरी 1991 रमेश सिपानी को बिक्री राजनीतिक निर्णय; श्रमिकों का कोर्ट जाना।
15 मई 1998 फैक्ट्री का पूर्ण बंद कर्ज के बोझ तले; 38 हेक्टेयर परिसर वीरान हुआ।
1999 कानूनी कार्यवाही शुरू कर्मचारियों और कर्जदाताओं द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट में वाद दायर।
30 जून 2022 देनदारी का निपटान सरकार द्वारा ₹67.92 करोड़ देनदारी चुकाई गई।
वित्तीय दाँव ₹600 करोड़ 200 बीघा जमीन का अनुमानित मूल्य।
कर्मचारियों का बकाया ₹21.73 करोड़ 622 कर्मचारियों को 24 साल की लड़ाई के बाद भुगतान।









